गुजरा कल
बड़े हुए पर गूंजे वहीं शोर लड़ने पर,
साथ पढ़ना साथ सीखना यहीं पर ,
ना पता था कभी चली जाएगी वो छोड़ कर ,
उसकी मीठी सी डाट कहीं गुम हो गई,
घर तो वहीं है, पर आवाज सुन हो गई,
परछाई मैं उसकी बात ये मालूम हो गई,
उलझ गई वो तो अब नए रिश्तों मे,
लग रही थी कुछ ऐसी गाठ बालो के फीतों मे,
जो सुलझाती , वो किस्से रह गए मेरे हिस्सो मे,
आती उसी के घर अब वो लम्हो के किश्तों मे,
लिखती मैं यादे बचपन की इस किताब पर,
क्यूँ हुई वो पराई जब देखे सपने साथ अगर,
ना समझे मुझे दुनिया की ये रीतरिवाज ,
सवाल करती मैं लोगो की इस हिसाब पर ।।।
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